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राजस्थान मैं खेजड़ी की कहानी बिश्नोइस ट्यूर स्टोरी, 3 हजार साल

 ज मारवाड़ पेड़रहित , मिट्टी और चट्टानों वाली एक बंजर भूमि है । यहाँ उगने वाली चीजें कंटीली । झाड़ियाँ , छोटी सूखी घास के गुच्छे और यदा  कदा उगने वाले छोटे कद के बड़ और पीपल के पेड़ हैं । लेकिन अविश्वसनीय रूप से आप इस रेगिस्तान में ऐसे गाँव में भी पहुँच सकते हैं , जहाँ खेजड़ी के पेड़ों के झुंड हैं ।

Rajasthan ki history
Rajasthan ki history

Rajasthan ke ped, story the tale of the bishnois ture story ,3 thoushand year old story...

 बबूल की यह चचेरी बहन कल्पवृक्ष है

  ऐसा वृक्ष जो सभी इच्छाएं पूरी करता है । एक सम्पूर्ण बड़ा ऊँट इसकी छाया में दोपहर के समय आराम करसकता है । इसकी पत्तियाँ और टहनियाँ बकरियों , भेड़ों , मवेशियों और ऊँटों का भरण  पोषण करती हैं ।

 इसकी फलियों से स्वादिष्ट सब्जी बनाई जा सकती है और इसके काँटे आवारा पशुओं से किसानों के खेतों की रक्षा करते हैं । एक समय की बात है जब मारवाड़ का रेगिस्तान उतने क्षेत्र में नहीं फैला था , जितना यह आज फैला हुआ है । हालाँकि जलवायु वैसी ही थी , जैसी यह आज है , जमीन हजारों - हजारों खेजड़ी के पेड़ों से ढकी थी और वहाँ बड़ी मात्रा में बड़ , साँगरी और कैर के पेड़ थे । ये मैदान हजारों बारहसिंगों , काले हिरणों , चिंकारा और नील गाय का निवास स्थान हुआ करते थे और इस क्षेत्र में भील जाति के लोग रहते थे ।

 लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व मवेशी  पालकों के समूह पश्चिमी और मध्य एशिया से भारत में घुसपैठ करने लगे । उनमें से कुछ मारवाड़ में फैल गये । भीलों ने उनकी घुसपैठ का विरोध किया , लेकिन हमलावरों के पास घोड़े और हथियार थे और शीघ्र ही भीलों पर काबू पा लिया । किसी भी स्थिति में जमीन असीमित दिखाई देती थी और भील अरावलियों की तरफ पीछे हट गये ।

 मारवाड़ की जनसंख्या बढ़ती गयी ।

 लेकिन जैसे  जैसे शताब्दियाँ गुजरती गयीं , मवेशियों के विशाल समूह ने वनस्पतियों को प्रभावित करना प्रारम्भ कर दिया । नव अंकुरित पौधों और कलमों को चर लिया गया और उनके बड़े होने के बहुत कम अवसर बच गये । हमलावरों और भील जातियों को अपना भरण  पोषण करने हेतु कम और कम प्राप्त होने लगा ।

 अन्तत : 13 वीं शताब्दी भीलों पर कन्नौज के राठौड़ों की गवाह बनी । अव सम्पूर्ण मेवाड़ पर राजपूतों का शासन था ।1451 ई . में राव जोधाजी के शासनकाल के दौरान , जो राठौड़ राजाओं में सर्वाधिक बहादुर था , पिपासर गाँव में एक असाधारण बालक ने जन्म लिया । उसके पिता ठाकुर लोहट गाँव के मुखिया थे और उसकी माँ का नाम हंसा देवी था । उस लड़के का नाम जम्बाजी था , बाल्यकाल में उसे अपने पिता के विशाल मवेशियों के समूह की देखभाल करने का काम दिया गया ।

 मवेशियों को चराने ले जाने , खेजड़ी के पेड़ की छाया में सोने और काले हिरणों के झुण्ड को देखने में बड़ा मजा आता था । जम्बाजी उस सुन्दर बारहसिंगे के सुखद विचरण की तरफ बहुत आकर्षित हुआ और वह सोचता था कि दो पूरे बढ़े हुए बारहसिंगों की लड़ाई से अधिक रोमांचकारी दृश्य कोई और नहीं था ।

 जब जम्बाजी 25 वर्ष की उम्र का था , उस सम्पूर्ण क्षेत्र में एक बहुत बड़ा विनाश हुआ । बरसात की अल्प मात्रा , जो नियमित रूप से हुआ करती थी , एकदम बन्द हो गयी । सबसे बदतर पीड़ित मवेशी थे । सूखे के पहले वर्ष के दौरान , वे बाजरे का भूसा खा सकते थे , जो घरों में भंडारण करके रखा वर्ष बेहद खराब था , कहीं घास की पत्ती भी गया था । दूसरा नहीं थी । लोग जो भी पेड़ देखते थे , काट डालते थे और पत्तियाँ जानवरों को खिला देते थे , लेकिन इसके बावजूद भूखे जानवरों के लिए पर्याप्त चारा नहीं बचा था और अकाल आठ वर्षों तक लगातार जारी रहा ।

 पेड़ों की अंतिमटहनियों को भी काट डाला , जो अन्ततः सूखने लगे । जब भंडारों में भरा अनाज बीत गया , तो लोगों ने खेजड़ी की फलियाँ खायीं और बड़ के बीजों का आटा बना कर खाया । जब यह भी समाप्त हो गया , उन्होंने साँगरी के पेड़ों की छाल उतार ली और उसे पीसकर पकाया।

 उन्होंने भूख से मरते काले हिरणों का शिकार कर लिया और अन्त में उन्होंने सारी आशा त्याग दी और समूह में पलायन कर गये । रास्ते में दसों हजार मवेशी मारे गये । अब तक सम्पूर्ण जमीन बंजर हो गयी थी ।

 मीलों की दूरी तक कोई वृक्ष नजर नहीं आता था , न कोई गाय अथवा कोई काला हिरण । केवल मात्र लोग , जो इँटे हुए थे , वे बड़े जमींदार थे जम्बाजी के पिता की तरह , जिनके पास बाजरे के विशाल भंडार थे , जो जैसे तैसे उस कठिन वक्त तक बना रहा ।

जम्बाजी इस अकाल से बेहद प्रभावित हुए । उसने बहुत  सी रातें जागते हुए बिताई उस पीड़ा के कारण जो उसने चारों तरफ देखी थीं । मरते हुए मवेशी , भूख से बिलबिलाते बच्चे , वे उसे दिन  रात सताते थे और अन्ततः 34 वर्ष की आयु में , उसने एक नजारा देखा ।

 उसने देखा कि मानव अपनी शक्ति के नशे में अपने आस  पास की दुनिया को नष्ट कर रहा था । और उसने इस सबको बदलने का निश्चय कर लिया । यदि इस वीरान जमीन पर जीवन को पुनः खुशहाल बनाना था , जम्बाजी ने देखा कि मानव को भिन्न तरह से रहना होगा और भिन्न सिद्धान्तों और मान्यताओं के अनुसार ।

 जम्बाजी पृथ्वी को एक बार पुनः प्रचुर मात्रा में खेजड़ी , बड़ , कैर और साँगरी के पेड़ों से ढक देना चाहते थे , वह चाहते थे कि काले हिरण वहाँ पुनः क्रीड़ा करें और वह चाहते थे कि मानव इस सबके लिए काम करे । जम्बाजी इसे प्राप्त करने का तरीका जानते थे । और उसने 1485 में अपना सन्देश प्रसारित करना प्रारम्भ कर दिया ।

 उनके सन्देश में 29 आधारभूत सिद्धान्त थे । उसके दो प्रमुख निर्देशों में किसी भी हरे पेड़ को काटने और किन्हीं भी जानवरों को मारने पर प्रतिबन्ध था । जम्बाजी के इंसानियत और सभी जीवित प्राणियों के सन्देश को तत्परता से अपना लिया गया । उनकी शिक्षाओं ने हजारों गाँवों के लोगों को पृथ्वी को पुनः हरी चादर से ढकने के लिए प्रोत्साहित किया ।

 जम्बाजी के अनुयायी बिश्नोई कहलाये अथवा उनतीस सिद्धान्तों को मानने वाले ; क्योंकि उन्होंने जम्बाजी के उनतीस सिद्धान्तों को अपनाया था । उन्होंने अपने गाँवों के आस  पास के वृक्षों का संरक्षण किया और काले हिरणों , चिंकारा , मादा पक्षियों और अन्य सभी प्रकार के पक्षियों की सुरक्षा की।

  उनका क्षेत्र हरे पेड़ों से ढकता गया । उनके मवेशियों के पास पर्याप्त चारा था । उनकी जमीन ने अपनी उर्वरा शक्ति पुनः प्राप्त कर ली थी और बिश्नोई खुशहाल लोग बन गये । लेकिन उनके सीमा - क्षेत्र के बाहर सब कुछ पहले जैसा ही था । जमीन को अभी भी उसकी हरी चादर से अलग किया जा रहा था और रेगिस्तान का प्रसार हो रहा था । जम्बाजी के समकालीन राव जोधाजी के नवे वंशज ने अब जोधपुर का सिंहासन संभाला ।

 अपने शासनकाल के छठे वर्ष 1730 में इस महाराजा , अभयसिंह ने अपने लिए एक महल का निर्माण करवाने का निश्चय किया - एक सुन्दर महल , जो जोधपुर के प्रसिद्ध लाल बलुआ पत्थर का बना हो । इसमें बहुत से चूने की आवश्यकता थी ।

 वास्तव में चूना  पत्थर उस क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में पाया जात था , लेकिन उसे उपचारित किया जाना था और चूना भट्टियों के लिए बहुत सारे ईंधन की आवश्यकता थी रेगिस्तान में इतना सारा ईंधन प्राप्त करना एक आसान कार्य नहीं था ।

 लेकिन जैसा भाग्य को मंजूर था , जोधपुर से 16 मील की दूरी पर बिश्नोइयों की एक बड़ी बस्ती थी । इन लोगों ने लगभग ढाई शताब्दी पूर्व जम्बाजी के सिद्धान्तों को अपनाया था और अपने गाँवों के आस पास सैकड़ों में खेजड़ी के वृक्षों को पाला - पोषा था । और उनके गाँवों के आस  पास चूना  पत्थर उत्तम किस्म का था ।

 अभयसिंह के दीवान ने आदेश दिया कि महल का निर्माण प्रारम्भ करने के लिए चूने की भट्टियाँ खेजड़ी गाँव के पास प्रारम्भ की जाएँ । लेकिन जब कारिंदे पेड़ों को काटने के लिए तैयार हुए , उन्होंने पाया कि बिश्नोइयों ने उन्हें पेड़ों को छूने भी नहीं दिया ।

 उनके खेजड़ी के पेड़ों को अकेले छोड़ दिया जाना चाहिए । इस घटनाक्रम को ढाई शताब्दियाँ गुजर गयी हैं ।

 बिश्नोई अभी भी पेड़ों की रक्षा कर रहे हैं और लगभग पाँच शताब्दियों से राजस्थान , हरियाणा और मध्य प्रदेश के वन्य जीवों की सहायता कर रहे हैं और सभी अन्य स्थानों पर भारतीय उप महाद्वीप की हरी चादर को नष्ट किया जा चुका है और लगातार बढ़ती हुई गति से नष्ट किया जा रहा है ।

 हजारों हजारों काले हिरण जो कभी भारतीय मैदानों में घूमा करते थे , सब गायब हो गये हैं , उनका कोई निशान भी नहीं बचा है । लेकिन कुछ बिश्नोई गाँव के आस पास हरियाली न केवल कायम है , अपितु सतत् रूप से बढ़ रही है और उनके गाँवों के चारों तरफ काले हिरण उसी प्रकार से स्वच्छन्द विचरण करते हैं जैसे कालिदास के समय में कण्व मुनि के आश्रम के आस पास मँडराते थे ।

 बिश्नोई मन्दिर के पास निडर घूमते हुए काले हिरणों के समूह को देखकर अकबर को इतना अधिक आश्चर्य हुआ कि उसने व्यक्तिगत रूप से इस दृश्य को सतयुग जैसा बताया । यह दृश्य हमारे लिए और भी आश्चर्यचकित कर देने वाला है जितना यह चार शताब्दियों पूर्व अकबर के लिए हुआ था , क्योंकि विश्नोई लगातार आज तक अपने शानदार सिद्धान्त पर कायम हैं ।

 खेजड़ली गाँव के पास जहाँ विश्नोइयों ने वह अग्निपरीक्षा उत्तीर्ण की थी , वहाँ एक प्राचीन खेजड़ी का वृक्ष है , जो उस कत्लेआम में बच गया था । दो वर्ष पूर्व बिश्नोइयों ने अपने 363 शहीदों की याद में उसके चारों तरफ 363 और पेड़ लगाये और इन पेड़ों को प्यार के साथ पाला पोषा जा रहा है , क्योंकि ये तेजी से बड़े हो रहे हैं ।

 प्रतिवर्ष इस स्थान पर भाद्रपद की पूर्णिमा से पाँच दिन पूर्व एक धार्मिक मेला लगता है । यह एक ऐसा अवसर है जिसे भारत के प्रत्येक वृक्षप्रेमी को अपने जीवन में कम से कम एक बार देखना चाहिए । 

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