Delhi में नए आंदोलन का आगाज:साधु-संतों ने कहा- मुट्ठीभर किसान सरकार को झुका सकते हैं तो हम क्यों नहीं, शस्त्र भी उठाएंगे
capital Delhi अभी किसानों के आंदोलन से मुक्त भी नहीं हुई और अब साधु-संतों ने सरकार को राष्ट्रव्यापी आंदोलन की चेतावनी दे डाली है। रविवार को देश के कई हिस्सों से साधु-संत दक्षिणी Delhi के कालकाजी मंदिर में इकट्ठा हुए और मठ-मंदिर मुक्ति आंदोलन की शुरुआत की। संतों ने कहा कि हम central and state governments को शांति से मनाएंगे, अगर नहीं माने तो 'शस्त्र' भी उठाएंगे। मंच से कई अखाड़ों, आश्रमों और मठों के साधु-संतों ने आक्रामक तेवर दिखाए। इस दौरान किसान आंदोलन का भी जिक्र हुआ।
ज्यादातर साधु-संतों का कहना था कि जब मुट्ठी भर किसान Delhi के कुछ रास्ते रोककर जमकर बैठ गए तो सरकार को झुकना पड़ा, फिर भला साधु-संतों से ज्यादा अड़ियल कौन होगा! जरूरत पड़ी तो रास्तों पर साधु-संत अपना डेरा बनाएंगे। यानी Delhi के लिए संदेश स्पष्ट है-एक और बड़े आंदोलन के लिए तैयार रहो। धर्म और आस्था से जुड़ा होने की वजह से यह आंदोलन जितना महत्वपूर्ण है, उससे भी ज्यादा अहम इसके आयोजन का जिम्मा लेने वाले 'महंत' का परिचय।
दरअसल, इस आंदोलन के आगाज के लिए आयोजित इस कार्यक्रम का आयोजन अखिल भारतीय संत समिति ने किया। समिति के अध्यक्ष महंत सुरेंद्र नाथ अवधूत हैं। सुरेंद्र नाथ एक और वैश्विक हिंदू संस्था 'विश्व हिंदू महासंघ' के राष्ट्रीय अंतरिम अध्यक्ष भी हैं। इस संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं- UP Chief Minister Yogi Adityanath.
हालांकि इस कार्यक्रम के आयोजन में महासंघ के बैनर का इस्तेमाल कतई नहीं हुआ, लेकिन वहां मौजूद कुछ साधु- संतों ने नाम न लिखने की शर्त पर यह जरूर कहा- हमारा आंदोलन सफल होगा, हमें एक 'Yogi' का आशीर्वाद प्राप्त है।
आंदोलन के बारे में बातचीत करते हुए एक और संत ने कहा, 'जब आस्तिक सरकार सत्ता में आई तो राम मंदिर बना, लेकिन हमारा आंदोलन राम मंदिर जितना लंबा नहीं जाएगा, क्योंकि अब सत्ता 'नास्तिकों के हाथ में नहीं है'। उन्होंने कहा- देश के अगले चुनाव से पहले-पहले हम एक व्यापक आंदोलन खड़ा करेंगे। ताकि जब दोबारा सरकार बने, तब सबसे पहले मठ-मंदिरों को सरकार के कब्जे से मुक्त करने का कानून बन सके।
इस कार्यक्रम का आयोजन अखिल भारतीय संत समिति ने किया है। इसमें देशभर से साधु-संतों ने हिस्सा लिया।
भारतीय अखाड़ा परिषद के महामंत्री राजेंद्र दास ने कहा- हम इस आंदोलन में तन-मन-धन से साथ हैं। हमने जो अध्ययन किया है, उनमें सबसे ज्यादा दयनीय स्थिति तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और केरल की है। उन्होंने कहा- शास्त्रों में लिखा है कि अगर देवधन राजकोष में जाएगा तो कोष कभी नहीं भरेगा।
Uttarakhand के देवस्थानम बोर्ड का भी जिक्र
महामंत्री राजेंद्र दास ने कहा कि दूसरे देशों में धार्मिक स्थलों के लिए 'राज्य' राशि देता है, जबकि हमारे यहां राज्य देवालयों और मठों के चढ़ावे पर नजर रखते हैं।' उन्होंने आगे कहा- 'मैं उत्तराखंड से हूं। वहां 51 मंदिरों को कब्जे में लेने वाले देवस्थानम् बोर्ड को लेकर लड़ाई जारी है।'
गौरतलब है कि उत्तराखंड के पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत के शासन काल में यह बोर्ड बना था। तीरथ सिंह रावत ने इस बोर्ड को खत्म करने का आश्वासन दिया था। मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर धामी इस मामले को लेकर बिल्कुल खामोश हैं। राजेंद्र दास ने मंच से कहा- 30 नवंबर को सरकार इस मामले में फैसला देने वाली है। उम्मीद है कि फैसला हमारे हक में होगा।
Muslim community पर भी साधा निशाना
कार्यक्रम का रंग भगवा से सांप्रदायिक तब होने लगा, जब यहां मौजूद साधु-संतों ने Muslim community को भी चेतावनी दे डाली। दरअसल, बाल योगी अलखनाथ औघड़ महामंडलेश्वर ने कहा- 'हिंदू धर्म में पुरुष साष्टांग दंडवत करते हैं जबकि महिलाएं पांचांग प्रणाम। और 'वे' भी पांचांग प्रणाम करते हैं।' निशाना नमाज की मुद्रा की तरफ था।
उनका कहना था कि पुरुष शक्तिशाली है। इसलिए दंडवत करता है और औरतें शारीरिक तौर पर कम शक्तिशाली हैं इसलिए वे पांचांग प्रणाम करती हैं। पांचांग प्रणाम की भाव भंगिमा नमाज से काफी मिलती-जुलती है। जबकि साष्टांग दंडवत पूरी तरह से जमीन पर लेटकर किया जाता है।
Hindus को जगाने का आह्वान
साधु-संतों ने मंच से Hindus को जगाने का आह्वान किया। कहा कि सरकार को हमारी मागें माननी पड़ेंगी।
एक दूसरे संत ने Hindus समाज को जगाने का आह्वन किया। जय श्रीराम के नारों के साथ मुट्ठी बांधकर वहां मौजूद सभी लोगों को मठ-मंदिर मुक्त होने तक आंदोलनरत रहने का संकल्प दिलाया। सबसे खास बात थी उनकी वह कथा जिसने धार्मिक रंग में सांप्रदायिकता घोलने का काम किया। कथा कुछ यूं थी...
'एक व्यक्ति जंगल से जा रहा था, उसने एक अजगर के बच्चे को घायल देखा। बच्चे को उठाकर वह घर ले आया। उसे पाला पोसा। वह अजगर उसके साथ रात में बिस्तर पर आ जाता और अपने शरीर को बढ़ाने का प्रयास करता। एक दिन एक संत उसके घर आए। अजगर को देखकर कहा। यह तुमने पाला है?
उसने कहा-जी महाराज। यह घायल था मैं ले आया, लेकिन कुछ दिनों से यह रोज रात को मेरे बिस्तर पर आ जाता है और अपना शरीर बढ़ाने का प्रयास करता है? महाराज ने कहा-मूर्ख, यह अजगर तुम्हारे शरीर से अपने शरीर को नापता है। जिस दिन यह तुम्हारे जितना हो जाएगा, वह तुम्हें निगल जाएगा।'
अंत में उन्होंने कहा, हमने अजगर पाला, वह वोट बैंक बन गया। और अब वह लगातार बढ़ रहा है। हिंदुओं मूर्ख मत बनो। हमें और अजगर नहीं पालना है।
क्या होगी आंदोलन की रणनीति?
कार्यक्रम के आयोजनकर्ता सुरेंद्र नाथ अवधूत ने बताया, हम अभी एक चिट्ठी प्रधानमंत्री को भेज रहे हैं। यह विस्तृत दस्तावेज जैसा है जिसमें सभी राज्यों की स्थिति को संक्षेप में समझाया गया है। अगर मांग पूरी हो गई तो हम पीएम को शुक्रिया कहेंगे।
मंच का रंग भगवा से जिस तरह सांप्रदायिक हो रहा था, उससे साफ था कि 2024 के Lok Sabha चुनाव में यह बड़ा मुद्दा होगा।
मांगें अगर पूरी नहीं हुईं तो फिर आंदोलन मंच पर नहीं, सड़क पर होगा। पूरे देश में गांव-गांव, शहर-शहर हम मशाल लेकर जाएंगे। लोगों को जगाएंगे। दिल्ली के मुख्य मार्गों में धूमि रमाएंगे। यानी Delhi के मुख्य मार्गों पर साधु-संत धरना देंगे। और अंत में जरूरत पड़ी तो शस्त्र भी उठाएंगे।
क्या हैं राजनीतिक मायने?
मंच का रंग भगवा से जिस तरह सांप्रदायिक हो रहा था, उससे साफ था कि 2014 का राम जन्म भूमि मंदिर मुद्दा 2019 में जिस तरह उफान पर था। उसी तरह से 2024 के लोकसभा चुनाव में भी यह मुद्दा बड़ा होगा। आगामी यूपी चुनाव में इस मुद्दे का रंग कुछ तो जरूर चढ़ेगा। दक्षिण में मंदिर मुक्ति आंदोलन पहले से ही उफान पर है। Lok Sabha चुनाव में वहां यह मुद्दा और गरमा सकता है।
साधु-संत सरकारों से खफा क्यों, इस कानून के खिलाफ क्या हैं तर्क?
हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एनडाउमेंट एक्ट के तहत देश के करीब 4 लाख मंदिर आते हैं। ब्रिटिश शासन काल के समय 1923 में मद्रास हिंदू रिलीजियस एनडाउमेंट एक्ट पारित हुआ था। 1925 में हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एनडाउमेंट्स बोर्ड का गठन हुआ। इसमें सरकार की तरफ से कमिश्नर्स और कुछ और अधिकारी नियुक्त किए गए थे। मंदिरों के चढ़ावे का पूरा ब्योरा सरकार के पास रहता था।
सरकार इस धन का इस्तेमाल अपनी तरह से करती थी। दरअसल, तत्कालीन सरकार पर आरोप हैं कि वह इस कानून के सहारे भारत में अकूत धन संपदा के गढ़ मंदिरों को लूटने का काम कर रही थी। भारत की आजादी के बाद 1960 और फिर 1991 में इसमें कुछ सुधार हुए। कुछ मंदिर सरकारी कब्जे से मुक्त भी हुए, लेकिन दक्षिण भारत के ज्यादातर मंदिर कब्जे में रहे। उत्तर भारत के भी कई मंदिर इस एक्ट से बंधे हैं।
मंदिरों-मठों के लिए इस आंदोलन की क्या वजह?
कार्यक्रम के आयोजन कर्ता सुरेंद्र नाथ अवधूत ने बताया कि हम एक चिट्ठी prime Minister को भेज रहे हैं। अगर मांग पूरी हो गई तो हम PM को शुक्रिया कहेंगे।
यह मुद्दा केंद्र से ज्यादा राज्यों का है। हिंदू Religious and Charitable Endowment Act के तहत मंदिरों के बजट, उनके चढ़ाने की राशि का हिसाब-किताब और वहां की नियुक्तियों को किया जाता है। राज्यों के अपने एक्ट्स भी हैं। तमिलनाडु में Tamil Nadu Hindu Religious and Charitable Endowment Act-1959 है। Kerala में 5 Devasthanam Boards के तहत हिंदू मंदिरों की व्यवस्था है। Andra Pradesh में भी Andra Pradesh चैरिटेबल एंड हिंदू रिलीजियस इंस्टीट्यूशन एंड एनडाउमेंट एक्ट-1987 है। Karnataka और Telangana में भी इस तरह के act हैं।
साधु-संतों का कहना है कि चर्च, मस्जिदों, गुरुद्वारों की तरह ही मंदिरों को भी सरकारी कब्जे से मुक्त होना चाहिए। इस आंदोलन में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया गया कि बहुसंख्यकों की आस्था के केंद्र मंदिर और मठों के साथ यह अन्याय राजनीति का परिणाम है।
दक्षिण भारत में मंदिरों पर सरकारी कब्जे के खिलाफ आंदोलन लगातार चल रहा है, लेकिन उत्तर भारत में यह पहला मौका है जब राष्ट्रीय स्तर पर मठ मंदिर मुक्ति आंदोलन का आगाज हुआ। राज्य स्तर पर उत्तराखंड में यह आंदोलन एक साल से जारी है।
15 जनवरी 2020 में Uttarakhand की त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने Devasthanam Boards की स्थापना की, लेकिन बोर्ड बनते ही वहां के साधु-संत इसके खिलाफ हो गए। सूत्रों की मानें तो आंदोलन उग्र हुआ तो रावत को इस्तीफा तक सौंपना पड़ा।
हालांकि इस्तीफे की वजह कुछ और बताई गई। तीरथ सिंह रावत ने आश्वासन दिया, लेकिन वह अपना वादा पूरा करते उससे पहले उन्होंने इस्तीफा भी दे दिया। यह आंदोलन Uttarakhand में आज भी जारी है।